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दिसम्बर की निर्वाचित पुस्तक
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सप्ताह की पुस्तक
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कुँवर उदयभान चरित इन्शा अल्ला खां द्वारा रचित सामाजिक उपन्यास है जिसका प्रकाशन १९०५ ई॰ में लखनऊ के एंग्लो-ओरियंटल प्रैस द्वारा किया गया था।


"सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूं उस अपने बनानेवाळे के साम्हने जिस ने हम सबको बनाया और बातकी बातमें वह सब कर दिखाया जिसका भेद किसीने न पाया। आतियां जातियां जो सांसें हैं। उसके बिन ध्यान सब यह फांसें हैं॥ यह कलका पुतला जो अपने उस खिलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाईमें क्यों पड़े और कडुवा कसैला क्यों हो। उस फलकी मिठाई चक्खै जो बड़ोंसे बड़े अगलोंने चक्खी है। देखनेको आखैं दीं और सुन्नेको यह कान दिये नाक भी ऊंची सबमें करदी मूरतोंको जी दान दिये मिट्टीके बासनको इतनी सकत कहां जो अपने कुन्हारके करतब कुछ बतासके। सच है जो बनाया हुवा हो सो अपने बनानेवालेको क्या सराहे और क्या कहे यों जिसका जी चाहे पड़ा बके।..."(पूरा पढ़ें)


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कर्मभूमि प्रेमचंद का दूसरा अंतिम उपन्यास है जिसका प्रकाशन १९३२ ई॰ में इलाहाबाद के हंस प्रकाशन द्वारा किया गया था। प्रेमाश्रम, कर्मभूमि और गोदान मिलकर किसान महागाथा त्रयी बनाते हैं।


"हमारे स्कूलों और कालेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फ़ीस का दाख़िल होना अनिवार्य है। या तो फ़ीस दीजिए, या नाम कटाइए; या जब तक फ़ीस न दाखिल हो, रोज कुछ जुर्माना दीजिए। कहीं कहीं ऐसा भी नियम है, कि उस दिन फ़ीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख को दुगुनी फ़ीस न दो, तो नाम कट जाता है। काशी के क्वींस कालेज में यही नियम था। ७वीं तारीख को फ़ीस न दो, तो २१वीं तारीख को दुगुनी फ़ीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जायँ। वह हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रिआयत नहीं करता। चाहे जहां से लाओ; कर्ज लो, गहने गिरो रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फ़ीस जरूर दो, नहीं दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। जमीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रिआयत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरियों में पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय यह राज है। देर में आइए तो जुर्माना, न आइए तो जुर्माना, सबक न याद हो तो जुर्माना, किताबें न खरीद सकिये तो जुर्माना, कोई अपराध हो जाए तो जुर्माना, शिक्षालय क्या है जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देनेवाले, पैसे के लिए ग़रीबों का गला काटनेवाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा को बेच देनेवाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है?"...(पूरा पढ़ें)


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सहकार्य
रचनाकार
रचनाकार

अनुपम मिश्र (1948 — 19 दिसम्बर 2016), लेखक, पत्रकार और पर्यावरणविद् थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ :

  1. राजस्थान की रजत बूँदें (1995)
  2. आज भी खरे हैं तालाब (2004)
  3. साफ़ माथे का समाज (2006)
आज का पाठ

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भारत में किसान-आन्दोलन स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा रचित किसान सभा के संस्मरण का एक अंश है जिसका प्रकाशन १९४७ ई॰ में किया गया।

"बहुत लोगों का खयाल है कि हमारे देश में किसानों का आन्दोलन बिल्कुल नया और कुछ खुराफाती दिमागों की उपज मात्र है। वे मानते हैं कि यह मुट्ठी भर पढ़े-लिखे बदमाशों का पेशा और उनकी लीडरी का साधन मात्र है। उनके जानते भोलेभाले किसानों को बरगला-बहकाकर थोड़े से सफेदपोश और फटेहाल बाबू अपना उल्लू सीधा करने पर तुले बैठे हैं। इसीलिये यह किसान-सभाओं एवं किसान-आन्दोलन का तूफाने बदतमीजी बरपा है, यह उनकी हरकतें बेजा जारी हैं। यह भी नहीं कि केवल स्वार्थी और नादान जमींदार-मालगुजार या उनके पृष्ठ-पोषक ऐसी बातें करते हों।..."(पूरा पढ़ें)

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